भारत में समान नागरिक संहिता के संदर्भ में स्वाधीनता के बाद से ही बहस चल रही है। लेकिन हाल के वर्षों में समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड) या यूसीसी पर राजनीतिक परिवेश ज्यादा गर्म रहा है। बीते दिनों उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने वादा किया था कि यदि वे फिर से सत्ता में आएंगे, तो राज्य के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करेंगे। इसी क्रम में पुष्कर सिंह धामी ने इसका प्रारूप तैयार करने को कुछ माह पहले सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में विशेषज्ञ समिति का गठन किया है।
भारत में आपराधिक कानून सभी लोगों के लिए एक समान है और सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं। परंतु देश में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोगों के लिए शादी, बच्चों को गोद लेना, संपत्ति या उत्तराधिकार आदि मामलों को लेकर पृथक पृथक नियम है। लिहाजा किसी धर्म में जिस बात को लेकर पाबंदी है, दूसरे संप्रदाय में उसी बात की खुली छूट है। कई नागरिक मामलों के लिए एक ही प्रकार की संहिता अथवा अधिनियम लागू हैं, जैसे भारतीय संविधान अधिनियम, वस्तु विक्रय अधिनियम, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, भागीदारी अधिनियम और साक्ष्य अधिनियम आदि। परंतु इनमें भी राज्यों ने सैकड़ों संशोधन कर डाले हैं। जिस तरह भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) और दंड प्रक्रिया संहिता सब पर लागू हैं, उसी तरह समान नागरिक संहिता (यूसीसी) भी होनी चाहिए, जो सभी वर्गों और समुदायों के लिए समान रूप से लागू हो।
यूसीसी लागू करने के बाद विवाह, तलाक, गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल ला यानी निजी कानूनों के तहत करते हैं। पर्सनल ला के अधिकांश प्रविधान महिलाओं की स्वतंत्रता तथा उनके मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं।
यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि यूसीसी के लागू होने से नागरिकों के खान-पान, पूजा-इबादत, वेश-भूषा आदि धार्मिक परंपराओं पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। कानून में समय के साथ बदलाव होते हैं, परंतु पर्सनल कानूनों का क्रियान्वयन उस धर्म के ही अधिकांश रूढ़िवादी तत्वों के हाथों में होने के कारण वे समय पर बदल नहीं पा रहे हैं जिससे उन समाजों के पिछड़ने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। विभिन्न संप्रदायों के अपने अलग-अलग सिविल कानून होने के कारण न्यायपालिका में भ्रम की स्थिति विद्यमान रहती है तथा निर्णय देने में कठिनाई के साथ-साथ समय भी अधिक लगता है।